बिहार के बैकग्राउंड में ‘जबरिया’ सा ठूंसा गया लगता है पंजाबी और लखनवी अंदाज

अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘पहला चुनाव हारने के लिए लड़ना चाहिए।‘ फिल्म के मूल राइटर संजीव के झा, डायरेक्टर प्रशांत सिंह, एडि‍शनल डायलॉग राइटर राज शांडिल्य और नीरज सिंह के मामले में ऐसा हो गया है। ‘जबरिया जोड़ी’ बिहार के माधोपुर इलाके के बैकड्रॉप में सेट है और संजीव, प्रशांत और नीरज भी वहीं से हैं। राज शांडिल्य इससे पहले कपिल शर्मा के शो के राइटर रहे हैं। प्रशांत सिंह, आनंद एल राय के असिस्टेंट रहे हैं और नीरज सिंह एड वर्ल्ड से जुड़े रहे हैं। सक्षम क्रिएटिव लोगों की जमात इकट्ठी होने के बावजूद 143 मिनट लंबी यह फिल्म शादी का फीका सोप ओपेरा होकर रह गई है। 


जबरिया जोड़ी की पूरी कहानी




  1.  






  1.  


    फिल्म से लगता है कि इन्हें मेकर्स की ओर से साफ हिदायत दी गई थी कि ऑडियंस के खास ग्रुप को ध्यान में रखकर डायलॉग, डायलेक्ट और टेंपराटमेंट रखा जाए। ‘दुनिया टिकी सिद्धांतों पर है, पर चलती सेटलमेंट से है’, ‘बिहार ऐसी जगह है, जहां आधे लोगों को पता ही नहीं कि उन्हें क्या करना है’, जैसे वन लाइनर पंच लंबे-लंबे अंतरालों बाद टुकड़ों में हंसी लाते हैं। पर फिल्म सिर्फ पंचेस वाले डायलॉग से असर नहीं छोड़ती। किरदार और पूरा माहौल, जहां से हैं, उन्हें पेश करने में ईमानदारी नहीं बरती गई है।


     




  2.  


    बुनियादी ‘बेईमानी’ फिल्म के एक गाने से होती है। ऐली अवराम, सिद्धार्थ मल्होत्रा और चंदन रॉय सान्याल व अन्य के साथ फिल्माया गया गाना ‘जिला हिलेला’ लखनऊ के रूमी दरवाजे पर शूट हुआ है। वह पूरे फ्रेम में दिख भी रहा है। इसके बावजूद फिल्म को बिहार में सेट बताया जाता है। नायक अभय सिंह का परिवार जिस हवेली में रहता है, वह इससे पहले कई फिल्मों में दिख चुकी है। ऑडियंस कन्फ्यूज होती है कि फिल्म बिहार में है कि यूपी में! हां, फिल्म का जो शुरूआती सीन है, वहां जरूर किशोरावस्था में नायक नायिका के ताड़ के पेड़ से मटकी फोड़ ताड़ी पीने के सीक्वेंस बिहार के लगते हैं।


     




  3.  


    फिल्म की रिलीज से पहले बताया गया कि सिद्धार्थ मल्होत्रा और परिणीति ने डिक्शन पर खासी मेहनत की थी। मगर वह स्क्रीन पर ट्रांसलेट नहीं हो सकी है। सिवाय ‘वैलेंटाइन’ को ‘भैलेंटाइन’ और हर ‘ड़’ की बजाय ‘र’ प्रनाउंस करने में। ऐसा वहां की आंचलिकता के चलते होता है। दूसरी दिक्कत लोकेशन चीटिंग और गीत संगीत से उपजी है। फिल्म की शूटिंग लखनऊ में हुई है और नाच गानों से लेकर कॉस्ट्यूम वगैरह में पंजाब का फील है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में स्नेहा खानवल्कर ने बिहार-झारखंड के गीत को किस खूबी से पकड़ा गया था, उसे ही रेफरेंस के तौर पर लिया होता तो गाने अच्छे और प्रामाणिक बन गए होते। हीरो हीरोइन जिस नजाकत से लिट्टी चोखा खाते हैं, उतनी सावधानी से तो फूल तक नहीं तोड़े जाते हैं। इन छोटी पर मोटी गलतियों ने फिल्म को प्रामाणिक नहीं बनने दिया है।


     




  4.  


    फिल्म बुनियादी तौर पर बिहार में युवकों को गन पॉइंट पर उनकी जबरन शादी करने की प्रथा पर है। इसमें एक अच्छी चीज की गई है कि जबरन शादी उनकी करवाई जाती है, जो दहेज के लालची हैं। नायक अभय सिंह वह काम ठेके पर करवाता है। उसके आगे चलकर विधायक बनने के ख्वाब हैं। उसका बाप हुकुम देव सिंह इलाके का दबंग नेता है। उसकी शह पर अभय सिंह बाहुबली बना हुआ है। बचपन में अभय सिंह को बबली यादव से प्यार हो जाता है पर दोनों बिछड़ जाते हैं। सालों बाद दोनों पटना में टकराते हैं। बबली तब तलक जिस किसी के प्यार में पड़ती है, वह उसे धोखा दे देता है। एक संतो है, जो उसका हर हाल में दोस्त बना रहता है। बबली के पिता दुनियालाल हैं। उनकी अपनी बेटी पर ज्यादा चलती नहीं। 


     




  5.  


    संतो और दुनियालाल के कैरेक्टर्स इतने बेबस गढ़े हैं कि पूरी फिल्म में उनका काम सिर्फ दोस्त और बिटिया की शादी करवाना भर रह गया है। उधर, अभय सिंह के यार और गुर्गों का भी बस एक ही काम शादी करवाना भर है। खटकने वाली बात तो यह बन पड़ी है कि बबली जेल जाती है। उसे अभय सिंह जबरन उठा ले जाता है। इन सबके बीच दुनियालाल और संतो के चेहरे पर शिकन और तनाव के भाव नहीं हैं। करप्ट पुलिस वाले के साथ उन सबकी हंसी मस्ती चल रही है।


     




  6.  


    दुनियालाल बने संजय मिश्रा और संतो के रोल में अपारशक्ति खुराना को छोड़ दें तो सिद्धार्थ, परिणीति और यहां तक कि चंदन रॉय सान्याल तक अपने कैरेक्टर्स को ढंग से नहीं पकड़ पाए हैं। अभय की मां बनीं शीबा चड्ढा जैसी प्रतिभावान एक्ट्रेस का टैलेंट वेस्ट हुआ है। दबंग नेता हुकुम देव के ऊपरी आभामंडल को पकड़ने की कोशिश तो जावेद जाफरी ने की है, मगर वे भी रूह तक पहुंच नहीं सके हैं। 


     




  7.  


    साफ लगता है कि कलाकारों के अभ्यास के बावजूद एकाध लाइन और वर्ड्स तक ही उनकी पकड़ दिखती है। राइटिंग का कायदा यह कहता है कि आपको अपने किरदारों से मोहब्बत नहीं होनी चाहिए। उनके प्रति आप को डिटेच्टमेंट का भाव रखना चाहिए, तब एक सधी हुई फिल्म बन पाती है। यहां दोनों किरदारों को लार्जर दैन लाइफ बनाने की कोशिश में बाकी सारे किरदारों को औने पौने दामों पर किसी बाजार में बेच दिया गया लगता है। अलबत्ता, बिहार की फिल्म बोल पंजाब की ऑडिएंस को खुश करने की कोशिश यहां हुई है तो बात अलग है।




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