यह फिल्म किस एनकाउंटर से इंस्पायर्ड है, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेखक रितेश शाह और निर्देशक निखिल आडवाणी ने इसे उस दायरे में रखते हुए अपनी सोच और समझ जाहिर की है।
यह फिल्म पुलिस और मजहब के नाम पर दहशतगर्दी को लेकर आम लोगों में जो परसेप्शन है, उस पर एक टेक है। फिल्म का नायक एसीपी संजय कुमार है। उसकी पत्नी नंदिता टीवी की एंकर है। फिल्म में इंडियन मुजाहिद्दीन का इंडिया में जो मॉड्यूल रहा है, उस पर फिल्म की कहानी गढ़ी गई है। बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल पर जो इंटरनल इंक्वायरी हुई थी, वह भी फिल्म में है। संजय कुमार का कैरेक्टर तब के दिल्ली पुलिस के डीसीपी संजीव यादव के सफर से इन्स्पायर्ड है।
बाटला हाउस की पूरी कहानी
संजय कुमार अपनी टीम के अफसर केके वर्मा, जितेंद्र कुमार और अन्य की मदद से दिल्ली और बाकी के शहरों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के मास्टरमाइंड को पकड़ने के लिए बाटला हाउस दबिश करने जाते हैं। वहां आदिल, दिलशाद और तुफैल छिपे होते हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि केके और पुलिस की टीम को गोली चलानी पड़ती है। उस गोलाबारी में आदिल की मौत हो जाती है। तुफैल पुलिस के हाथों पकड़ा जाता है और दिलशाद अपने होमटाउन भाग जाता है।
तुफैल पुलिस की इनफॉर्मल इंक्वायरी में इंडियन मुजाहिद्दीन की करतूतों को जस्टिफाई करता है। इसी बीच पुलिस मीडिया और मानवाधिकार संगठनों के निशाने पर आ जाती है। सभी सवाल करने लगते हैं कि एनकाउंटर फर्जी हुआ है। मजहब के नाम पर तीन बेकसूर युवाओं को इरादतन बम धमाकों के केस में फंसाया गया है। यहां से मजहब के नाम पर आरोपी नजर आने वाले लोगों और उन पर होने वाली कार्रवाई की एक पड़ताल शुरू होती है।
लेखक रितेश शाह ने इससे पहले 'पिंक' के तौर पर एक सधी हुई कहानी सिनेमा के चाहने चाहनेवालों को दी थी। तब यह बहस भी शुरू हुई थी कि लड़कियों की ना का मतलब ना ही होता है, उनकी ना में कोई हां छिपी नहीं होती है। यहां बताया गया है कि आतंक को मजहब की नजर से देखने का नजरिया गलत है। फिल्म कलाकारों की कास्टिंग, अपने टेंपरामेन्ट और टोन के लिहाज से बहुत हद तक अनुशासित रहती है।
संजय कुमार के रोल में जॉन अब्राहम ने किरदार को लार्जर दैन लाइफ नहीं बनने दिया है। तुफैल बने आलोक पांडे को निखिल आडवाणी ने पूरा स्पेस दिया है। आदिल अमीन बने क्रांति प्रकाश झा ने दमदार अदायगी की है। शहिदुर रहमान ने दिलशाद के कैरेक्टर में निष्ठा पूर्वक रहने की कोशिश की है। नंदिता बनी मृणाल ठाकुर, केके के भूमिका में रवि किशन और जॉन अब्राहम से सीनियर बने मनीष चौधरी के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन उन सबने भी अपनी मौजूदगी के साथ न्याय किया है।
आतंकियों की कारगुजारी पर हिंदी सिनेमा के पास एक तरफ अल्ट्रा रियलस्टिक ब्लैक फ्राइडे फिल्म रही है तो दूसरी तरफ कमर्शियल स्पेस में तलवार जैसी फिल्में हैं। बाटला हाउस अपने कैरेक्टराइजेशन, लोकेशन और ट्रीटमेंट के लिहाज से इन दोनों फिल्मों के बीच जगह बनाती नजर आती है। यह और बेहतर हो पाती, अगर फिल्म के बीच में नोरा फातेही का आइटम नंबर नहीं होता।
आतंक मजहब विशेष से जुड़ा नहीं होता, उस पर और गहरी पड़ताल की गई होती। फिर भी जॉन अब्राहम, रितेश शाह, निखिल आडवाणी तारीफ के हकदार हैं कि एक ऐसे दौर में जब इंडिया और इनके अचीवमेंट को दर्शक हाथोहाथ ले रहे हैं, वहां पर उन्होंने सिस्टम की खामी को जस का तस लाने की कोशिश की है। फिल्म की एडिटिंग काफी सधी हुई है 146 मिनट की होने के बावजूद फिल्म लंबी महसूस नहीं होती। सधे हुए रफ्तार से वह अपने निष्कर्ष तक पहुंचती है।